५ फरवरी, १९५८

 

        ''दार्शनिक आपत्ति अधिक गंभीर है; क्योंकि, यह स्वतः-सिद्ध जान पड़ता है कि निरपेक्ष ब्रह्मकी अभिव्यक्तिका केवल अभि- व्यक्तिके आनंदको छोड़कर और कुछ उद्देश्य नहीं हो सकता; इस वैश्व वक्तव्यमें जड-तत्त्वकी विकासमूलक गति-धारा भी अभिव्यक्तिके एक अंगके रूपमें आ जानी चाहिये; वह वहां केवल उन्मीलनके, प्रगतिशील कार्यान्वयनके, उद्देश्यरहित क्रमिक आत्म-प्रकाशनके आनंदके लिये ही हो सकती है । समग्र विश्वको भी अपने-आपमें कोई संपूर्ण वस्तु माना जा सकता है; समग्र होनेके नाते, न तो उसे कुछ प्राप्त करना है, न अपने स्वरूपकी पूर्णतामें कुछ जोड़ना है । परंतु यहां भौतिक जगत् सर्वांगपूर्ण समग्रता नहीं है, बह संपूर्णका एक अंगमात्र है, स्तर-परंपरामे केवल एक स्तर है; अतः बह अपनेमें समग्रके उन अविकसित अभौतिक तत्वों या शक्तियों- की, जो उसकी जड़ताके भीतर अंतर्लीन हैं, विद्यमानताको अंगीकार कर सकता है; केवल इतना ही नहीं, इसके साथ- साथ वह विश्व-संस्थानके उच्चतर स्तरोंसे उन्हीं शक्तियोंके अवतरणको भी अपनेमें अंगीकार कर सकता है जिससे कि उन स्तरोंकी सजातीय क्रियाएं यहां भौतिक परिसीमनकी कठोरतासे उन्मुक्त हो जायं । सत्की महत्तर शक्तियोंकी ऐसी अभिव्यक्ति जिसके अंतमें भौतिक जगत्की संपूर्ण सत्ता

 

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एक उच्चतर, एक आध्यात्मिक सृष्टिके रूपमें अभिव्यक्त हो जाती है, विकासका उद्देश्य मानी जा सकती है । यह उद्देश्य किसी भी ऐसे तत्त्वको प्रविष्ट नहीं करता जो समग्रता- मे न हो यह केवल अंशमें समग्रताकी उपलब्धिका विचार प्रस्तुत करता है । वैश्व समग्रताकी आशिक गति-धारामें उद्देश्य-रूप तत्त्वको अंगीकार करनेमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती; यदि वह उद्देश्य वहां समग्र गति-धारामें अंतर्निहित समस्त संभावनाओंकी सुपूर्ण अभिव्यक्ति हो यहां जिस उद्देश्य- की चर्चा की जा रही है वह मानव अर्थमें उद्देश्य नहीं है, अपितु अंतर्यामी ब्रह्मकी इच्छामें सचेतन, आभ्यन्तरिक सत्य आवश्यकताकी प्रेरणा है । निस्संदेह, यहां सब कुछ सत्ताके आनंदके लिये है, सब लीला है; परंतु लीला भी तो अपने भीतर एक ऐसा उद्देश्य रखती है जिसे पूरा करना है और उस उद्देश्यकी पूर्ति हुए बिना लीलाकी सार्थकता पूरी न होगी । बिना उपसंहारका नाटक एक कलात्मक संभावना हो सकती है, वह केवल पात्रोंके देखनेमें हर्ष अनुभव करनेके लिये और ऐसी समस्याओंमें हर्ष लेनेके लिये हो सकती है कि जिनका कोई समाधान नहीं दिया गया है अथवा समाधानको सदाके लिये अनिश्चितताकी तुलामें लटकाते रहनेके लिये छोड़ दिया गया है; यह विचारमें लाया जा सकता है कि पार्थिव विकासका नाटक भी इसी स्वभावका हो यह भी संभव है कि उस विकासमें परिणाम अभिप्रेत हो या अंतर्निहित तथा पूर्व-निर्धारित हो और यह अधिक विश्वासप्रद हो सकता है । आनंद संपूर्ण सत्ताका गुह्य तत्त्व है और सत्ताकी संपूर्ण क्यिन् का आधार है; परंतु आनंद उस सत्यके कार्यान्वयनके आनंद- का बहिष्कार नहीं करता जो (सत्य) सत्तामें अंतर्निहित है, सत्ताकी शक्ति या इच्छामें पिरोया हुआ है और जो, उसकी (सत्ताकी) चित्-शक्ति उसकी (सत्ताकी) समस्त क्रियाओंकी क्रियात्मक और कार्यकारी अभिकर्त्री है और उनकी सार्थकता जाननेवाली है उस (चित्-शक्ति) के छिपे आत्म-ज्ञानमें धारण किया हुआ है ।',

 

( 'लाइफ डिवाइन', पु० ८ ३'-'१)

 

 यदि कोई समस्याको साधारण व्यावहारिक बुद्धिके लिये अधिक सुबोध

 

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बनाना चाहे ते'। वह सोच सकता है कि सब कुछ शाश्वत कालसे अस्तित्वमें है ओर इसीलिये समकालिक मी है । लेकिन यह संपूर्ण समकालिक, शाश्वत अस्तित्व उस चेतनाकी जायदाद, मिल्कियतकी तरह है जो अपनी जमीनोंमें विचरनेमें आनन्द लेती है, अपनी पूरी जागीरकी लगभग असीम नहीं, तो कम-से-कम अनिश्चित यात्रामें सुरव पाती है और इस तरह एकके बाद एक चीजको खोजती जाती है, ऐसी चीजोंको जो पहलेसे ही विद्यमान है, सदासे विद्यमान रही हैं.. पर जहां परमकी चरण-धूलि कमी नहीं पडी । अपनी खोजमें वह जिस पथपर चलती है वह तुरन्त चूना हुआ इतना स्वतंत्र, अप्रत्याशित और अपूर्वदृष्ट पथ हो सकता है कि यद्यपि उसका संपूर्ण राज्य अनादि कालसे चला आ रहा है, और अनन्त कालतक रहेगा, फिर भी बहु नितात्र अप्रत्याशित अज्ञात ढंगसे वहां पहुंच सकती है और इस तरह सारे संबंधों ओर सभी संभावनाओंके लिये द्वार खोल सकती है ।

 

         और यह खोज उसकी अपनी खोज भी है क्योंकि यह राज्य भी वह स्वयं ही है; तुरन्त लिये गायें निश्चयोंद्वारा, मनकी किसी पूर्वनिर्धारित योजनाके बिना, पूर्ण स्वतंत्रता ओर हर पल अप्रत्याशितताके सारे आनन्द- के साथ यह खोज की जा सकती है -- और यह होगी अपनी ही सत्तामें अनन्त विहार ।

 

        सब कुछ पूरी तरह पहलेसे 'निर्धारित है, क्योंकि सब कुछ चिरकालसे चला आ रहा है, फिर भी पार किये जानेवाले पथमें स्वतंत्रता है, अप्रत्याशितता है ओर वे मी पूर्ण हैं ।

 

       और इसी तरह अनेक लोकोंका समसामयिक अस्तित्व है जिनका आपस- मे कोई प्रत्यक्ष संपर्क नहीं, फिर भी ये सहवर्ती है । लेकिन इनकी खोज धीरे-धीरे ही होती है और तब लगता है कि यह कोई नवीन सृष्टि है... वस्तुओंको इस तरह देरवते हुए हम यह अच्छी तरह समझ सकते है कि इस भौतिक जगत् के साथ-ही-साथ जैसा कि हम इसे इसकी सारी अपूर्णताओं, सीमाओं और अज्ञानके साथ जानते है, अपने-अपने क्षेत्रोंमें स्थित अन्य एक या अनेक लोकोंका अस्तित्व है जिनन्ही प्रकृति हमारी इस धरतीसे इतनी भिन्न है मानो हमारे  उनका कोई अस्तित्व हीं नहीं, क्योंकि हमारा उनसे कोई नाता नहीं । लेकिन जिस क्षण सनातन महती यात्रा इस लोकको पार करके उस लोकमें जायगी, उसी क्षण, इस सनातन 'चेतना'- के केवल पार जानेसे ही अनिवार्य रूपमे एक शृंखला बन जायगी और धीरे-धीरे दोनों जगतोंमें आपसी संबद्ध हो जायगा ।

 

       वस्तुतः आजकल यही कार्य हो रहा है और हम निश्चयपूर्वक यह कह सकते है कि अतिमानसिक जगत् पहलेसे ही विद्यमान है, पर अब वह

 

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समय आ पाया है जब सर्वोच्च 'चेतना' के अभियानका यही लक्ष्य होगा और तब धीरे-धीरे इस जगत् और उस जगतके बीच एक चेतन संपर्क स्थापित हो जायगा और यात्राके इस नये दिशामानके कारण दोनोंमें एक नया नाता दिखायी देगा ।

 

          अन्य व्याख्याओंकी तरह यह भी एक व्याख्या है और शायद उन लोगोके लिये अधिक आसानीसे सभझमें आनेवाली हों जो तत्वमीमासक नहीं है... । कम-से-कम मुझे तो यह पसन्द है!

 

           मां, आपने कहा है कि सब कुछ पूर्णतः पूर्वनिर्धारित है, तब व्यक्तिगत प्रयासका स्थान कहां है?

 

 मैंने अभी-अभी तुम्हें, बताया है कि वह 'महान् यात्री' हर क्षण अपनी यात्रा- की दिशा चुनता रहता है, अतः यहां चुनावकी पूरी छूट है, और यही छूट वैश्व अभिव्यक्तिको वह अकल्पनीय रूप और परिवर्तनकी संभावना प्रदान करती है, क्योंकि परम प्रभु यदि चाहें तो, अपना मार्ग बदलनेके लिये पूरी तरह स्वतंत्र है । बल्कि यही है पूर्ण स्वाधीनता । किंतु सब कुछ वहां विद्यमान है और चूंकि सब कुछ मौजूद है इसलिये सब कुछ पूर्णतया निर्धारित भी है -- उसका अस्तित्व सदासे चला आ रहा है, गर इसकी खोज बिलकुल अप्रत्याशित ढंगसे होती है । इस खोजमें ही निहित है स्वाधीनता ।

 

        तुम घूमने निकलते हो, और सहसा, एक रास्तेको छोड़ दूसरा रास्ता पकड़नेमें तुमको मजा आता है । तुम्हारा रास्ता बिलकुल नया होता है, पर वे चीजों तो वहां पहलेसे ही विद्यमान थीं जहां तुम जा रहे थे, सदा ही उनका अस्तित्व था, इसीलिये वे पहलेसे निर्धारित थीं -- पर तुम्हारी खोज निर्धारित नहीं थी ।

 

         निःसंदेह, परम 'चेतना' के साथ एकाकार हुई चेतनाको ही इस पूर्ण स्वाधीनताका बोध हो सकता है । जबतक तुम परम 'चेतना' के साथ एकाकार नहीं हो जात, तबतक, मजबूरन, तुम्हारा यह ख्याल, यह भाव या विचार होता है कि तुम एक उच्चतर 'संकल्प' द्वारा शासित हों, पर, जिस क्षण तुम उस 'संकल्प-शक्ति' के साथ एक हों जाते हों, तुम पूर्णतः स्वाधीन

 

         हम इस बातपर लौट आते हैं जो श्रीअरविन्द सदासे कहते आ रहे है : ''परम प्रभुके साथ एकाकार होनेमें ही सच्ची स्वाधीनता चरितार्थ होती ?

 

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           मधुर मां, जव कि हर नये जन्ममें मन, प्राण और शरीर नये होते हैं तो पिछले जन्मोंके अनुभव उनके लिये कैसे उपयोगी होते है? क्या हमें उन सब अनुभवमेंसे दुबारा गुजरना होता

 

 यह व्यक्ति-व्यक्तिपर निर्भर है!

 

          जन्म-जन्मान्तरोमे मन और प्राण विकास और प्रगति नही करते (कुछ एक विरल अपवादोंको और क्रम-विकासकी बहुत उन्नत अवस्थाको छोड़- कर) : चैत्य पुरुष विकसित होता है ओर प्रगति करता है । अतः, होता यह है : चैत्य पुरुषके क्रिया और विश्रामके काल अदल-बदलकर आते हैं; भौतिक जीवनकी अनुभूतियोंद्वारा, भौतिक देहके होते हुए सक्रिय जीवन- द्वारा और मन, प्राण, तनके सब अनुभवोंद्वारा चैत्य पुरुष प्रगति करता है; इसके बाद, साधारणतया, चैत्य पुरुष आत्मसात् करनेके लिये एक प्रकार- की विश्रान्तिमें चला जाता है जहां सारे सक्रिय जीवनकी अर्जित प्रगतिके परि।गामका लेखा-जोखा होता है । जब यह आत्मसात्करण पूरा हो .जाता है, जब वह पृथ्वीपर निवास करते हुए सक्रिय जीवनमें जो प्रगति की थी उसे अपनेमें समा लेता है तव वह उस सारी प्रगतिके फलको लिये हुए फिरसे नया शरीर धारण करता है, और एक उन्नत अवस्थामें तो अपने रहनेके लिये परिवेश, शरीरका प्रकार और जीवनका प्रकार भी चून लेता है, ताकि अपने किसी खास अनुभवको पूरा कर सके । कुछ बहुत अधिक विकसित लोगोंमें शरीर छोड़नेसे पहले ही चैत्य पुरुष यह निर्णय ले सकता है कि अगले जन्ममें वह कैसा जीवन अपनायेगा ।

 

          जब वह लगभग पूरी तरहसे निर्मित, काफी सचेतन सत्ता बन जाता है तो वह नयी कायाकी रचनाकी अध्यक्षता करता है । आम तौरसे आन्तरिक प्रभावद्वारा वह उन तत्वों और पदार्थोको चुनता है जो इसका शरीर इस तरह बनायेगे कि शरीर नये अनुभवकी आवश्यकताओंके अनुकूल बन सकें । किन्तु यह तो काफी उन्नत अवस्थाकी बातें हैं । बादमें, जब वह पूरी तरह निर्मित हो चुकता है और सेवाकी भावनासे, भागवत 'कार्य' में सामूहिक सहाय और सहयोगके ख्यालसे धरतीपर लौटता है तब वह पिछले जन्मोंके प्राण और मनके अमुक तत्वोंको इस निर्मित होती कायामें लानेमें सफल होता है जो पिछले जन्मोंमें चैत्य शक्तियोंद्वारा संगठित और अनुप्राणित

 

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होनेके कारण सुरक्षित रहे और, फलत:, अब आम प्रगतिमें भाग लें सकते है । पर हां, यह होता है बहुत, बहुत उन्नत अवस्थामें ।

 

         जब चैत्य पुरुष पूर्ण विकसित और सचेतन हो, जब वह भागवत 'संकल्प'- का सचेतन यंत्र बन जाय तो यह मन और प्राणको इस तरह संगठित करता है कि वे मी व्यापक सांमजस्यमें भाग ले सकें और उन्हें मी सुरक्षित रखा जा सके ।

 

         विकासकी समुत्रत अवस्था देहके विघटनके बाद भी मन और प्राणके कम-से-कम कुछ अंशकों सुरक्षित रखनेकी अनुमति देती है । उदाहरणके लिये : यदि, मानवी क्रिया-कलापमें कुछ भाग (मानसिक या प्राणिक) खास तौरसे विकसित कर लिये गायें हों तो मन और प्राणके ये तत्व उसी ''रूप- मे'' अक्षुण्ण बने रहते है -- उसी क्रियाके रूपमें जो पूरी तरह शृंखलित की गयी है -- जैसे, उच्च बौद्धिक स्तरवाले लोगोंमें, जिन्होंने अपने मस्तिष्कका विशेष विकास किया है, उनके व्यक्तित्वका मानसिक अंश इस रचनाको बनाये रखता है और एक व्यवस्थित दिमागके रूपमें सुरक्षित रहता है जिसका अपना जीवन होता है और जिसे अगले जीवनतक रखा जा सकता है, ताकि वह अपनी सारी कमाईके साथ उसमें मांग लें सकें ।

 

        कlलकारोंमें, उदाहरणार्थ, कुछ संगीतज्ञोंमें, जिन्होंने अपने हाथोंका सचेतन रूपसे प्रयोग किया है, प्राणिक ओर मानसिक तत्व हाथोंके रूपमें बना रहता है और ये हाय काफी सचेतन रहते है और जीवित लोंगोंके शरीरको भी माध्यम बना लेते हो यदि उनमें विशेष सादृश्य हों -- आदि-आदि ।

 

         अन्यथा, साधारण लोगोंमें, जिनका कि चैत्य पुरुष पूर्णतया विकसित ओर सुव्यवस्थित नहीं होता, यदि मृत्यु बहुत शान्त और संकेन्द्रित हुई हों तो चैत्य पुरुषके शरीर छोड़नेपर मानसिक और प्राणिक रूप कुछ समयतक बने रह सकते है । लेकिन यदि कोई अचानक आवेशभरी अवस्थामें अनगिनत आसक्तियां लिये मरा हो तो, सत्ताके अलग-अलग भाग बिखर जाते हैं ओर अपने-अपने क्षेत्रमें कम या अधिक समय अपना जीवन जीकर बिला जाते हैं ।

 

        शरीरमें चैत्य पुरुषकी उपस्थिति ही संघटन और परिवर्तनका केन्द्र है । अतः यह मानना भारी भूल है कि प्रगति जारी रहती है, या, जैसा कुछ लोग मानते है कि, दो भौतिक जन्मोंके बीचके संक्रमणकालमें यह अधिक पूर्ण और द्रुत होती है; साधारणतया प्रगति बिलकुल नहीं होती, क्योंकि चैत्य पुरुष विश्राम करने चला जाता है और अन्य भाग अपने-अपने लोकमें क्षणिक जीवन बिताकर विलीन हों जाते. है ।

 

        पार्थिव जीवन प्रगतिका क्षेत्र है । यहां, इस धरापर, पार्थिव अस्तित्व-

 

की अवधिमें ही प्रगति संभव है । अपने विकास और क्रम-विकासकी स्वयं व्यवस्था करता हुआ चैत्य पुरुष ही एक जन्मसे दूसरे जन्ममें प्रगतिको वहन करता है ।

 

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